कहानी -पन्द्रहवीं पुतली सुन्दरवती
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कहानी -पन्द्रहवीं पुतली सुन्दरवती | 
हर दिन की तरह राजा भोज जैसे ही सिंहासन में बैठने को किया तो पन्द्रहवीं पुतली सुन्दरवती ने उन्हें रोक दिया और बोली राजन, मै तुम्हे राजा विक्रमादित्य दान की कथा सुनाती हूँ -
विक्रमादित्य के साम्राज्य में उज्जैन राज्य की समृद्धि चारो दिशो में फैली हुयी थी ।
व्यापारियों का व्यापार अपने देश तक ही सीमित नहीं था, बल्कि दूर के देशों तक फैला हुआ था।
उसी राज्य में एक सेठ हुआ जिसका नाम पन्नालाल था।
वह बड़ा ही दयालु तथा परोपकारी था। चारों ओर उसका यश था। वह दीन-दुखियों की सहायता के लिए हरदम तैयार रहता था।
उसका एक पुत्र था हीरालाल, जो पिता की तरह ही नेक और अच्छे गुणों वाला था।
जब उसका पुत्र विवाह योग्य हुआ, तो पन्नालाल अच्छे रिश्तों की तलाश करना शुरू कर दिया।
एक दिन एक ब्राह्मण ने उसे बताया कि समुद्र पार एक नामी व्यापारी है जिसकी कन्या बहुत ही सुशील तथा गुणवती है।
पन्नालाल ने फौरन उसे आने-जाने का खर्च देकर कन्यापक्ष वालों के यहां रिश्ता पक्का करने के लिए भेजा।
कन्या के पिता को रिश्ता पसंद आया और उनकी शादी पक्की कर दी गई।
विवाह का दिन जब समीप आया, तो मूसलधार बारिश होने लगी।
नदी-नाले जल से भर गए और द्वीप तक पहुंचने का मार्ग अवरुद्ध हो गया। बहुत लम्बा एक मार्ग था, मगर उससे विवाह की तिथि तक पहुंचना असम्भव था।
सेठ पन्नालाल के लिए यह बहुत बड़ी समस्या थी। इस स्थिति के लिए वह तैयार नहीं था, इसलिए बेचैन हो गया।
उसने सोचा कि शादी की सारी तैयारी कन्या पक्ष वाले कर लेंगे और किसी कारण बारात नहीं पहुंची, तो उसको ताने सुनने पड़ेंगे और जग हंसाई होगी।
जब कोई हल नहीं सूझा, तो विवाह तय कराने वाले ब्राह्मण ने सुझाव दिया कि वह अपनी समस्या राजा विक्रमादित्य के समक्ष रखें।
उनके अस्तबल में हवा से तेज उड़ने वाला रथ था और उसमें प्रयोग में लाये जाने वाले घोड़े थे।
उस रथ पर आठ-दस लोग वर सहित चले जाएंगे और विवाह का कार्य शुरू हो जाएगा। बाकी लोग लम्बे रास्ते से होकर बाद में सम्मिलित हो जाएंगे।
सेठ पन्नालाल तुरन्त राजा विक्रमादित्य के पास पहुंचा और अपनी समस्या हिचकिचाते हुए राजा को बताई।
राजा विक्रमादित्य मुस्कराते हुए कहा कि राजा की हर चीज प्रजा के हित की रक्षा के लिए होती है और विक्रमादित्य अस्तबल के प्रबन्धक को बुलाकरऔर कहा की उन्हें घोड़े सहित वह रथ दे दिया जाये।
प्रसन्नता के मारे पन्नालाल को नहीं सूझा कि राजा विक्रम को कैसे धन्यवाद दें।
जब वह रथ और घोड़े सहित चला गया, तो विक्रम को चिन्ता हुई कि जिस काम के लिए सेठ ने रथ लिया है, कहीं वह कार्य भीषण वर्षा की वजह से बाधित न हो जाए।
उन्होंने मां काली द्वारा प्रदत्त बेतालों का स्मरण किया और उन्हें सकुशल वर को विवाह स्थल तक ले जाने तथा विवाह सम्पन्न कराने की आज्ञा दी।
जब रथ पवन वेग से दौड़ने को तैयार हुआ, तो दोनों बेताल ने रथ के नीचे छाया की तरह रथ के साथ जाने लगे।
यात्रा के मध्य में सेठ ने देखा कि रास्ता कहीं भी नहीं दिख रहा है, चारों ओर पानी ही पानी है तो उसकी चिन्ता बहुत बढ़ गई।
उसे सूझ नहीं रहा था कि क्या किया जाए। तभीअचानक एक घटना घटी। घोड़ों और रथ जमीन के ऊपर उड़ने लगा।
रथ जल के ऊपर ही ऊपर उड़ता हुआ सही दिशा की ओर बढ़ रहा था। दरअसल दोनों बेतालों ने उसे उठा रखा था और विवाह स्थल की ओर उड़े जा रहे थे।
निश्चित मुहूर्त में सेठ के पुत्र का विवाह सम्पन्न हो गया।
कन्या को साथ लेकर जब सेठ पन्नालाल उज्जैन लौटा, तो घर के बदले सीधा राज दरबार गया।
राजा विक्रमादित्य ने वर-वधु को आशीर्वाद दिया।
सेठ पन्नालाल घोड़े और रथ की प्रशंसा में ही खोया रहा। राजा विक्रमादित्य उसका आशय समझ गए और उन्होंने अश्व तथा रथ उसे उपहार स्वरूप भेंट कर दिए।
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